हम क्या खाए, क्या न खाए

हम क्या खाए, क्या न खाए

संसार में खाद्य पदार्थो की बहुत लम्बी श्रंृखला है। प्रश्न यह है कि क्या खाया जाये और क्या न खाया जाये। हर खाद्य हर एक के अनुकूल नहीं पड़ता है। यह उसकी प्रकृति पर निर्भर है। किसी को अंकुरित अनाज अनुकूल पड़ता है और किसी को प्रतिकूल। इसके लिए मनुष्य को स्यवं अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि यदि आज मेरा शरीर भारी या रूग्ण है तो कब से भारी है और जब से भारी है उसके पहले हमने क्या खाया है, या कौन सा कार्य विशेष किया है। जैसे एसीडिटी के रोगी तला भुना अधिक खाते है या अधिक व्यायाम करते है तो उनके पेट मे जलन हाने लगती है या जी मचलाने लगता है। इसलिए मनुष्य को स्वयं देखना चाहिए या क्यों है। यह देखकर उसे उस भोज्य पदार्थ या कार्य विशेष से बचना चाहिए और उस रोग को प्राकृतिक उपायों से दूर करना चाहिए।
मैने अधिकांश व्यक्तियों को देखा है जिनको स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई जानकारी नहीं रहती है, चाहे वे शिक्षित है या अशिक्षित। याद रखिए आदमी स्वयं अपना डॉक्टर है। उससे बड़ा चिकित्सक और कोई नही। बस थाड़ी सी जानकारी चाहिए। वह क्या खा रहा है, क्या पी रहा है, कैसी दिनचर्या जी रहा है इस सब का उसे ध्यान रखना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि उसका शरीर किस प्रकृति का है। वात, पित्त और कफ तीन प्रकृति होती है। यूँ तो प्रत्येक का शरीर इसी वात, पित्त और कफ से बना हैै। परन्तु किस के शरीर में कौन सी धातु प्रधान है, इसे देखना चाहिए। कफ शरीर वाले प्रायः स्थूल शरीरधारी होते है, इनकी आवाज मोटी होती है। यह धार्मिक और शांत स्वभाव के एंव लोभी होते है। जो खाद्य पदार्थ विपाक, वीर्य और गुण में कटु, तिक्त और कषाय (कड़ुआ, तीता और कसैला) होते है वे कफ को शांत करते है। इसके विपरीत मधुर, अम्ल और लवण रस से कफ उत्पन्न होता है। इसलिए कफ प्रधान शरीर वाले को या कफ के रोगी को मधुर, अम्ल और लवण रस वाले भोजन से बचना चाहिए।
पित्त प्रधान व्यक्ति प्रायः पतले, रक्तवर्ण एवं रक्तनेत्र वाले होते है। इनका चेहरा तेज युक्त होता है। ये श्वेत बालो वाले प्रायः गंजे होते है साथ ही ये तार्क्रिक, क्रोधी और प्रायः नास्तिक विचार धारा के होते है। खट्टा, कड़वा और नमकीन खाद्य इनके लिए विषवत् है। उपर्युक्त रस प्रधान अधिक भोजन करने से इनको पित्त अधिक बनने लगता है जिससे इनके पेट और सीने आदि में जलन होने लगती है साथ ही उलटी करने का मन होता है। इन्हें मधुर तीता और कसैला भोजन करना चाहिए। भोजन में देशी घी अवश्य लेना चाहिए। सरसों आदि का तेल पित्त बनाता है इसलिए इसका सर्वथा त्याग करना चाहिए। भोजन में ताजा सलाद और नींबू आवश्यक हैै। नींबू रस में तो अम्लीय है परन्तु वीर्य में क्षारीय है। यहाँ यह चीज ध्यान देने योग्य है जो पदार्थ विपाक एवं वीर्य में मधुर, तीता और कषाय हो उन्ही को पित्त प्रधान शरीरधारी को ग्रहण करना चाहिए। कुछ पदार्थ ऐसे होते है जो रस में तो मधुर होते है परन्तु विपाक और वीर्य में विपरीत गुण रखते है। इसलिए इन सबका बहुत ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त पदार्थ की शक्ति का भी ध्यान रखना चाहिए। जैसे करैला पित्त नाशक होने के बावजूद बहुत से लोगांे को पित्त बनाता है। इसलिए इन सबका ध्यान रखते हुए खाद्य पदार्थ को ग्रहण करना चाहिए।
वायु प्रधान शरीर वाले दुर्बल काया के, रूक्ष एवं तेजहीन चेहरा वाले होते है। ये कामी प्रकृति के होते है, इन्हें प्रायः घुटनो में एंव जोड़ो मे दर्द रहता है। कटु , तिक्त और कषांय, इन तीनों रसो से वायु पैदा होती है और मधुर, अम्ल एंव लवण इन तीनों से वायु शान्त होती है। इसलिए वायु प्रधान रोगी को सदैव मधुर अम्ल और लवण युक्त (जो विपाक, वीर्य और शक्ति में मधुर, अम्ल और लवण) खाद्य खाने चाहिए।
आयुर्वेद में प्रत्येक खाद्य पदार्थ के रस, विपाक, वीर्य, गुण, शक्ति आदि का वर्णन किया गया है। यदि हम उनकी सूची देते है तो वेबसाइट बहुत बड़ा हो जायगा। इसके लिए सबसे सरल मार्ग यह है कि आप अपने ऊपर प्रत्येक पदार्थ को खाकर अजमाये कि आप को क्या अनुकूल पड़ता है और क्या प्रतिकूल। इस प्रकार जानकारी प्राप्त करके भोज्य पदार्थ को ग्रहण करें।

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