पानीपूरी मसाला
पानीपूरी मसाले को पानी में घोलकर गोलगप्पें में भरकर खाया जाता हैं। बाजार में बनी बनायी फुल्की मिलती हैं या चिप्स के रुप में भी गोलगप्पे मिलते हैं, उसे मंगाकर तेल में छान लीजिए। पहले से सफेद या हरी मटर उबाल कर रख लीजिए। गोल गप्पे में ऊपर की ओर उंगली से छेद करके उसमे उबला हुआ मटर भरकर पानीपूरी के जल को उसमें भरकर समूचा खायें। यह बहुत स्वादिष्ट होता हैं। उबले हुए मटर में आप हरी धनिया की बारीक कटी पत्ती भी मिला सकते हैं। पानीपूरी में अलग-अलग स्वाद के लिए आप चाट मसाला या रायता मसाला को भी जल में घोलकर भी प्रयुक्त कर सकते हैं। कुछ लोग मीठी फुल्की पसन्द करते हैं। इसके लिए चाट मसाला “र्शीषक” में मीठी चटनी बनाने की विधि के अनुसार चटनी बनाकर प्रयोग करना चाहिए। पानीपूरी मसाला में अमचुर, मिर्चा एवं नमक का मिश्रण विद्यमान हैं। परन्तु यदि आपको खट्टा कम…
गरम मसाला
भारतीय मसालो मे गरम मसाले का महत्वपूर्ण स्थान है। गरम मसाले मे अनेक प्रकार के मसालो का मिश्रण रहता है, जो गरम होते है। इसी कारण इन्हे गरम मसाला कहते है। वैसे तो प्राचीन भारत के लोग मसालो का अधिक प्रयोग नही करते थे,परन्तु भारत मे मुगलो के आगमन के बाद गरम मसालो का प्रयोग बहुतायत से होने लगा। मुगल गरम मसालो का प्रयोग अत्यधिक मात्रा मे करते थे। जो भी हो गरम मसालो की उपयोगिता आज भी बरकरार है। इसके प्रयोग से भोजन स्वादिष्ट बनता है एंव पाचन क्रिया भी ठीक रहता है। परन्तु गरम मसाले का प्रयोग कम मात्रा मे करना चाहिए अधिक मात्रा मे इसके प्रयोग से नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते है। हमारे समूह द्वारा दो प्रकार के गरम मसाले बनाये जाते है। एक सामान्य और दूसरा स्पेशल। सामान्य गरम मसाला सब्जी आदि के लिए ठीक रहता है जबकि स्पेशल गरम मसाला मंसाहार के लिए…
लाल मिर्च
लगभग 500 वर्ष पूर्व भारतीय लाल मिर्च से अनभिज्ञ थे। भारत में इसके पौधे को लाने वाले पुर्तगाली माने जाते है। धीरे-धीरे इसकी खेती पूरे देश में की जाने लगी। वस्तुतः इसका मूल स्थान दक्षिणी अमेरिका माना जाता है। पेरू के आदिवासी प्रागैतिहासिक काल से ही लाल मिर्च से भिज्ञ थे। यह एक महत्तवपूर्ण मसाला है। लाल मिर्च सोलेनेसी परिवार का सदस्य है। इसका नाम कैप्सिकम एनुअमलिन है। लाल मिर्च वास्तव मे इसी जाति का सूखा हुआ फल है। विभिन्ननामः- हिन्दी, पंजाबी एवं उर्दू में लाल मिर्चा, अंग्रेजी में चिली, गुजराती में मर्चा, कंन्नड़ में मेंसिनकाई, तमिल में मिलगै, बंगला एवं उड़िया में लंका कहते है। गुणधर्म – यह ऊष्णवीर्य, तीक्ष्ण, अग्निवर्धक, रूचिकर, रक्तपित्त नाशक और कफनाशक है। चर्मरोग, कृमिरोग, विषदोष एवं व्रणदोष में उपकारी है। रासायनिक संघटन –जलांश: 7.9%; प्रोटीन: 13.8%; वसा: 10.4%; कच्चा रेशा: 19.00% ; कार्बोहाइड्रेट: 40.1%; कुल भस्म: 7.1%; कैल्शियम 0.2%; लौह: 0.22%; फास्फोरस:0.3%; सोडियम: 0.02%;…
धनिया
भारत में धनिये के बीजों और उसकी ताजी पत्तियों का प्रयोग अतीत काल से होता आ रहा है। संभवतः यह ऐसा प्रथम मसाला है जिसे मानव ने पहली बार प्रयोग किया। ईसा से 5000 वर्ष पूर्व मनुष्य को इसकी जानकारी थी। इसके प्रयोग से साग-सब्जी, सलाद, चटनी बहुत स्वादिष्ट और सुगन्धित बनते हैं। इसका मूल स्थान भूमध्य सागर का तटवर्ती प्रदेश है। भारत, मोरक्को, रूस, हंगरी, पोलैण्ड, मैक्सिको, अमेरिका आदि देशों में इसका उत्पादन व्यापारिक स्तर पर होता है। भारत में यह सर्वत्र बोया जाता है। यह अवेलीफेरी परिवार का सदस्य है। इसका वानस्पतिक नाम कोरिएंड्रम सैटाइयमलिन है। इसका पौधा एक से फुट तीन फुट तक ऊँचा होता है। शीतऋतु के अंत में इसमें फल और फूल आने लगते हैं। फूल सफेद या बैंगनी रंग के होते हैं और फल गोलाकार छोटी-छोटी गोलियों जैसे पीले और धानी रंग के होते हैं, जो धनिया कहलाता है। विभिन्न नाम – संस्कृत-धन्यक, हिंदी-धनिया,…
हल्दी
हल्दी भारत का एक अतिप्राचीन और महत्तवपूर्ण मसाला है। यह मूलरूप से भारत का पौधा है। विश्व मे सर्वाधिक हल्दी भारत में पैदा होती है।प्राचीन काल से ही भारत हल्दी का निर्यातक रहा है। निर्यात किए जाने वाले मसालो मे हल्दी का स्थान प्रमुख है। हल्दी जिंजिबेरेसी परिवार का सदस्य है। जिसका वानस्पतिक नाम ‘कर्क्यूमा लौगा लिन’ है। हल्दी वास्तव में इस पौधे की मोटी एवं सूखी जड़ो को कहते हैं कि जिसे उबाल कर, साफ कर, सुखा लिया जाता है। यह छोटे तने या गुच्छेदार पत्तो वाला बारहमासी पौधा होता है। भारत मे हल्दी की पैदावार मुख्यतः दक्षिण भारत एव बिहार मे होती है। दक्षिण भारत की हल्दी रंग एवं गुणो मे सर्वश्रेष्ठ होती है। भारत के अतिरिक्त इसकी व्यवसायिक स्तर पर खेती चीन एव श्रीलंका में होती है। विभिन्न नाम – संस्कृत -हरिद्रा, भद्रा, मंगलप्रदा, सुवर्णवर्णा, हिन्दी- हल्दी, हरदी, उमा, निशा, जयन्ती अंग्रजी-टर्मेरिक (Turmeric), बंगला-हुलद, गुजराती- हलधर, हल्दी,…
हींग
हींग तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और पाकिस्तान मैं पैदा होती है। भारत में यह कश्मीर में पैदा होती है। अपनी सुगंध और गुणों के कारण हीग विश्वविख्यात है। यह हरीतक्यादि वर्ग और गर्जर कुल (अबेलीफेरी) का बहुवर्षजीवी वृक्ष है। इसका वानस्पतिक नाम फेरूला एसफेटिडा लिन है। हींग का वृक्ष 6 से 8 फुट ऊँचा होता है। इसके पत्ते कोमल, रोयेदार और लंबे डिम्बांकृति के होते है। हींग के वृक्ष की जड़े गाजर जैसी मोटी होती है। यह वृक्ष जब 4-5 वर्ष का हो जाता है तब इसकी जड़ो का व्यास 12-15 से0मी0 तक हो जाता है। हींग प्राप्त करने के लिये मार्च-अप्रैल मे पुष्प आने के पूर्व ही इसकी हरी जड़ो का बाह्य आवरण हटा दिया जाता है और जड़ को चोटी के पास से काट दिया जाता हैं। जड़ की कटी सतह से दूधिया रस बहने लगता है। कुछ दिनोपरान्त वह दूध गाढ़ा हो जाता है, तब उसे जड़…
सरसों
यह धान्यवर्ग और राजिकाकुल ( Cruciferae) का क्षुप है, जिसकी खेती समस्त भारत मे होती है। इसका पौधा एक से तीन फुट तक उँचा होता है। जिसमे पीले रंग के सुन्दर पुष्प होते है। इसके फल मार्च के महीने मे पक जाते है। सरसो श्वेत, पीत और श्याम वर्ण की होती है समस्त सरसो के गुण समान है परन्तु इनमे श्वेत सरसो उत्तम है। सरसो से 31 से 35 प्रतिशत तक तेल निकलता है। यह राई के तेल़ के समान दाहजनक नही है। विभिन्न नाम- रासायनिक संघटन- गुर्ण धर्म एंव उपयोग – यह रस मे कटु एंव तिक्त, विपाक मे कटु, वीर्य मे उष्ण एंव गुण मे स्निग्ध है। सरसो अग्निवर्धक, पित्तवर्धक, ह्रदयोत्तेजक, मूत्रल, कफ और वाद नाशक है। खुजली कोढ़ और पेट के कीड़े को नष्ट करती है। भूतबाधा दूर करने मे तंात्रिकगण इसका प्रयोग करते है। सरसो के पत्तो के शाक की सब्जी बनती है। इसे पंजाब मे…
राई
यह धान्य वर्ग और राजिकादि कुल ( ब्तनमपमितंब द्ध का पौधा है। यह रबी के फसल के समय बोई जाती है और ग्रीष्मकाल मे पक जाती है। इसका पादप दो से चार फुट तक उँचा होता है और इसके पत्ते मूली के पत्ते के समान होते है। इसमे पीले रंग के फूल आते है और फली के रूप मे फल लगते है, जिसमे लाल महीन दाने निकलते है। यह भारत, पूर्वी एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका मे बहुतायत से पाया जाता है। विभिन्न नाम- संस्कृत- राजिका, राजि, आसुरी, तीक्ष्णगन्धा; हिन्दी एंव गुजराती- राई; कशमीर- आसुर। तेलगु- अवालु ; मलयालम- कडुक; फारसी- सरफफ; अंग्रेजी- प्दकपंद डनेजमतक रासायनिक संगठन- जलांष: 6.40ः, वसाः 35.00: ,कच्चारेषाः 8.00ः, नाइट्रोजनीय पदार्थः 25% , भस्म: 5.2% ,नाइट्रोजनमुक्तसार 22.40% होता है। गुण धर्म एंव उपयोग – यह रस मे कटु, तिक्त, विपाक कटु, वीर्य मे उष्ण, गुण तीक्ष्ण एंव दाहकर है। राई पाचक, उत्तेजक, चरपरी कड़ुवी, गर्म, दाहजनक, पित्तकारक…
अजवाइन
अजवाइन की खेती उत्तरी भारत के साथ साथ आन्ध््राप्रदेष और तमिलनाडु में की जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी खेती ईरान, मिó और अफगानिस्तान में भी होती है। यह एक वार्शिकीय पौधा है, जो अक्टूबर-नवम्बर माह में बोया जाता है और मई-जून में इसकी फसल तैयार होती है। इसका बीज खाकी रंग का होता है, जो अजवाइन कहलाता है। इसका पादप एक से तीन फुट तक ऊँचा होता है। अजवाइन की प्रषंसा में कहा गया है- ‘एका यमानी षतमन्नपाचिका ‘ अर्थात अजवाइन अकेली ही सौ प्रकार के अन्न को पचाने वाली होती है। यह अवेलीफेरी परिवार का सदस्य है और इसका वानस्पतिक नाम टेªकीेस्पर्मम एमी (लिन) है।विभिन्न नाम – संस्कृत- यवनिका, अजमोद, हिंदी, पंजाबी और उर्दू- अजवाइन, मराठी- असेवा, बंगला- जीवान, मलयालम- ओमम, गुजराती- यावान, जवाइन, फारसी- नाबरब्बा, अंग्रेजी- अजोवानगुण धर्म- आयुर्वेदानुसार अजवाइन, उश्णवीर्य, तीक्ष्ण, लघुपाक, अग्निवर्धक, गर्भाषयषोधक, पित्तवर्धक, पाचक, रूचिकर एवं वायुकफ तथा षुक्रनाषक है। अजीर्ण, अग्निमांध, प्लीहा, उदरी एंवम…
सौफ
यह भूमघ्य सागरीय देषो का पौधा है। इसका पादप पौने दो मीटर तक ऊँचा होता है। जीरे के समान परन्तु उससे कुछ मोटे हरे पीले रंग के इसके बीज होते हैं। जो स्वाद मे मीठे और बहुत ही सुगन्धित होते हैं। दक्षिणी भारत को छोड़कर षेश पूरे भारत मे इसकी खेती होती है। उत्तर प्रदेष, बिहार और झारखण्ड की सौफ प्रसिद्ध है। लखनऊ (उ0्रप्र0) की महीन सौफ अति सुगन्धित और सुमधुर होती है। भारत के अतिरिक्त यह रूस, हंगरी, जर्मनी, फ्रांस, अर्जेण्टीना, जपान, आदि देषो में भी उगाई जाती है। विभिन्न नाम – संस्कृत- मधुरिका, हिन्दी और पंजाबी- सौफ, गुजराती- वरियारी , कन्नड़- बाड़ी-सोपू, तमिल- षेंबें, तेलगु- जिलकरा गुणधर्म एवं उपयोग- यह षीतवीर्य, सुगन्धित, रूचिकर, षुक्रवर्धक श्रेश्ठपित्तनाषक, कफवर्धक और मुखदोश निवारक है। ज्वर, उदररोग, वमन, पेटदर्द, कृमिरोग और नेत्ररोग में लाभकारी है। षीतल प्रकृति की होने के कारण गर्मी की अधिकता वाले रोगो में इसका प्रयोग किया जाता है। यह…