हींग

हींग

हींग तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और पाकिस्तान मैं पैदा होती है। भारत में यह कश्मीर में पैदा होती है। अपनी सुगंध और गुणों के कारण हीग विश्वविख्यात है।

यह हरीतक्यादि वर्ग और गर्जर कुल (अबेलीफेरी) का बहुवर्षजीवी वृक्ष है। इसका वानस्पतिक नाम फेरूला एसफेटिडा लिन है। हींग का वृक्ष 6 से 8 फुट ऊँचा होता है। इसके पत्ते कोमल, रोयेदार और लंबे डिम्बांकृति के होते है। हींग के वृक्ष की जड़े गाजर जैसी मोटी होती है। यह वृक्ष जब 4-5 वर्ष का हो जाता है तब इसकी जड़ो का व्यास 12-15 से0मी0 तक हो जाता है। हींग प्राप्त करने के लिये मार्च-अप्रैल मे पुष्प आने के पूर्व ही इसकी हरी जड़ो का बाह्य आवरण हटा दिया जाता है और जड़ को चोटी के पास से काट दिया जाता हैं। जड़ की कटी सतह से दूधिया रस बहने लगता है। कुछ दिनोपरान्त वह दूध गाढ़ा हो जाता है, तब उसे जड़ से अलग कर लिया जाता है और जड़ पर पुनः एक नया चीरा लगा दिया जाता है। इसप्रकार चीरा लगाने और जमा दूध एकत्रित करने का कार्य अनेक बार चला करता है। लगभग 3 माह तक यह कार्य होता रहता है। अंत मे जड़ और तने के मिलन स्थान पर भी एक चीरा लगा देते है और जमा दूध एकत्रित कर लेते है। यही जमा दूध हींग कहलाता है।

विभिन्न नाम- संस्कृत– हिंगु सहस्त्रवेधि अगुदगंध, उग्र गंधा, बाधिक। हिंदी, पंजाबी, गुजराती, मराठी और उर्दू- हींग, कषमीरी- यंग, मलयालम और तमिल मे पेरूंगायम, तेलगु मे इंगुवा, अंग्रजी मे Asafetida.

गुण़धर्म एंव उपयोग – आयुर्वेदानुसार हींग उष्णवीर्य, लघुपाक, स्निग्ध, पाचक, ह्रदय को हितकारी, वायु कफनाशक, पित्तवर्धक, कामोद्दीपक एंव स्नायुउत्तेजक है। वायुरोग, अर्जीण, हिस्टीरिया एवं कृमि रोग मे हितकारी है।

आयुर्वेदिक की अनेक औषधियों में हींग का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। मुख्यतः वात रोगों में हींग विशेषरूप से लाभकारी है।पेट के फूलने, दर्द, अपच और कृमि रोग मे शोधित हींग अजवाइन और घीग्वार के गूदे के साथ दिया जाता है। मलेरिया मे हींग और शुद्ध कपूर के समभाग मिश्रण को शहद मे मिलाकर देते है। पाठक इस बात का ध्यान रखे कि दवा मे प्रयुक्त होने वाला कपूर दूसरा होता है। यह जलाने वाला कपूर दवा मे प्रयुक्त नही होता है।

कालानमक, श्यामा जीरा और अजवाइन के साथ इसे देने से समस्त प्रकार के उदर रोगो मे लाभ होता है।

ऑतो मे वायु फँसी होने पर या अल्सर होने पर हींग के पानी का एनीमा दिया जाता है।

शरीर मे कही घाव हो गया हो और वह सड़ गया हो साथ ही उसमे कीड़े पड़ गये हो और अति दुर्गन्ध भी आती हो तो नीम की पत्ती 24 ग्रा0 और शुद्ध हींग 1 ग्रा0 देशी घी के साथ पीसकर पुल्टिस बनाकर ( यदि पुराना घी हो तो अति उत्तम है ) उसे घाव पर बॉधने से घाव ठीक हो जाता है और घाव के कीड़े भी मर जाते है। यह पुल्टिस 5-6 बार बॉधनी पड़ती है।

शुद्ध हींग की पहचान– शुद्ध हींग का उपरी भाग पीलापन युक्त होता है। और तोड़ने पर भीतर सफेद रंग का होता है। जो हींग रंग मे जितनी साफ और तोड़ने मे जितनी अधिक मुलायम होगी वह उतनी ही अधिक शुद्ध होगी। इसके विपरीत जो हींग रंग मे जितनी मटमैली और तोड़ने मे जितनी अधिक कठोर होगी वह उतनी ही अशद्ध होगी। शुद्ध हींग जल मे डालने पर शनैः-शनैः श्वेत धारा देकर जल को दुग्धवत् कर देती है। ऐसी हींग की गंध तीष्ण और स्वाद कटु होता है और वह प्रशस्त मानी जाती है।

इसके अतिरिक्त हींग में उर्द या गेहूं के आटे को मिलाकर भी हींग बनाई जाती है जो गुणों में निम्न स्तर की और कीमत में सस्ती होती है।

हींग का शोधन – हींग को लोहे के तावे पर देशी घी मे भूनते है। जब हींग हल्की फूल जाये तब उसे आग से नीचे उतारकर बर्तन को ठण्डा होने तक इधर उधर चलाते है। पूर्णतः ठण्डा होने पर हींग को साफ शीशी मे भरकर रख ले। यही शोधित हींग है।

हमारे यहॉ तजाकिस्तान की हींग का विक्रय होता है। इसके अतिरिक्त हमारे जलजीरा मसाला, पानी पूरी मसाला, उर्द और मूॅग के पापड़ एंव विभिन्न प्रकार के अचारो मे भी हींग का प्रयोग होता है।

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